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मनुष्य तर जीव जगत रुपी सृष्टि का कर्म चक्र तो मर्यादित एवम नियंत्रित चल ही रहा है| इस कर्म फल के सिद्धांत का स्वरूप के ठीक-ठीक बोध होने से मनुष्य का कर्म चक्र भी मर्यादित व नियंत्रित होगा और मनुष्य के जीवन में तथा समष्टी में भी सुख, समृद्धि व शाश्वत शांति स्थापित होगी|
कर्मफल सिद्धांत
- कृत, कार्य ,अनुमोदित, पाप ,पुण्य या निष्काम कर्म (Divya Karma) का फल कई गुना या अनंत गुना होकर हमें ईश्वरीय न्याय व्यवस्था अनुसार अवश्य मिलता है।
- कर्मा फल कर्म करने वाले को ही मिलता है तथा उसका प्रभाव परिणाम लाभ हानि यश अपयश आदि अन्य व्यक्ति परिवार समाज राष्ट्र व समष्टि को भी प्राप्त होता है।
- अन्यों के द्वारा शारीरिक सामाजिक आर्थिक अध्यात्मिक या राजनीतिक आदि हानि अपमान या जीवन हानी करने पर उसकी क्षतिपूर्ति ईश्वर अवश्य करता है।
- कर्मफल (कर्माशय) के रूप में जीवो को जन्म आयोग व भोग अर्थात सुविधा ,संसाधन व समृद्धि आदि मिलती है ।(वस्त्र ,भोजन ,जल व विद्युत आदि)तथा जितना हम सुविधाओं व संसाधनों का उपयोग करते हैं उतना उतना हमारा पुण्याशय भी क्षीण होता जाता है।
- 1 दिन की जिंदगी जीने के लिए अन्य मनुष्य, प्रकृति, परमात्मा व करोड़ों सूक्ष्मजीव हमारी सेवा या मदद करते हैं। अतः एक एक क्षण हमें भी सब मनुष्य तथा प्रकृति, परमात्मा व सब जीवो के प्रति प्रेम , कृतज्ञता व करुणा का भाव रखते हुए सब की सेवा अवश्य करनी चाहिए ।अन्यथा हम पाप के भागी बनेंगे।
कर्मफल सिद्धांत से जुड़े कुछ प्रश्न एवं उनके उत्तर।
इस सृष्टि में जितने भी चेतना प्राणी मात्र मनुष्य , मनुष्यतर जलचर ,थलचर, नभचर प्राणी है वह सब कर्मफल से बंधे हुए हैं और कर्मसे ही मुक्त भी होते हैं।
कर्मा एवं मनुष्यानम कारण बंधमोक्षयो:
कर्म व कर्म फल व्यवस्था बहुत ही विस्तृत जटिल और बहुत ही कठिनाई से समझने योग्य है। इसको शत-प्रतिशत समझ पाना अत्यंत कठिन है फिर भी जितना हमारे जीवन के लिए समझना आवश्यक है और अपने गुरु हजारों से जितना सुना है समझा है उतना तो विचार कर ही सकते हैं।
१) भारतीय संस्कृति का मूल तत्व क्या है?
भारतीय संस्कृति का मूल तत्व है धर्म जो सबको धारण व पोषण करता है वह धर्म है। जिसके माध्यम से भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति होती है वह धर्म है। Arthat jiske madhyam se bhautik aur aadhyatmik unnati Hoti hai vah Dharm hai.
२) धर्म का मूल क्या है?
धर्म का मूल वेद है। वेदों में जो भी स्तुति या प्रार्थनाएं आदि की गई है वह सब या तो बहुत ही उन्नति के लिए हैं या फिर आध्यात्मिक उन्नति के लिए है।
३) वेद किसके लिए हैं?
वेद के भी केंद्र में किसी को माने तो यह सारा प्रयास आत्मा की उन्नति के लिए आत्मा को हानि से बचाने के लिए ही हो रहा है। आत्मा अपने कर्मों व संस्कारों से बंधा हुआ है। इसलिए सर्वप्रथम हमें कर्म के प्रति ही जागरूक होना चाहिए। क्योंकि प्रतिक्षण हम किसी न किसी कर्म से युक्त रहते ही हैं। इसका अर्थ यह है कि हम हर क्षण कोई ना कोई कर्म करते रहते हैं। कर्मा फुल व्यवस्था एक ऐसी ईश्वरीय न्याय व्यवस्था है जो सदा औचित्य पूर्ण पक्षपात रहित व न्याय पूर्ण ही होती है।
४) कर्म का कर्ता कौन है ?
जो कर्म को करने ना करने या अन्यथा करने में सदा स्वतंत्र होता है उसे करता कहते हैं अतः कर्म का कर्ता तो सशरीर आत्मा है।
५) कर्म किसे कहते हैं?
जीव की क्रिया या चेष्टा विशेष को कर्म कहते हैं।
६) कर्म की कितनी स्थितियां होती है?
कर्म की तीन स्थितियां होती है क्रियमान कर्म,
संचित कर्म
प्रारब्ध कर्म
जो हम अभी कर रहे हैं उसे क्रियमान कर्म कहते हैं।
जो हम कर चुके हैं उसे संचित कर्म कहते हैं।
जो कर्म विपाक को प्राप्त हो चुके हैं अर्थात फल देने के लिए उन्मुख हो चुके हैं उसे प्रारब्ध कर्म कहते हैं इसी को भाग्य भी कहते हैं।
७) कर्म कितने प्रकार के होते हैं?
कर्म चार प्रकार के होते हैं।
पुण्य कर्म(धर्म/ शुभ)।
पाप कर्म (अधर्म/अशोक)।
मिश्रित कर्म ।
दिव्य कर्म ।
दिव्य कर्म को है निष्काम कर्म भी कह सकते हैं अर्थात जिससे व्यष्टि और समष्टि मुक्ति की तरफ जाने के तरफ चल पड़ती है ।उपरोक्त तीन प्रकार के कर्म सभी सामान्य जनों के होते हैं। तथा चौथे निष्काम कर्म या दिव्य कर्म केवल योगियों के ही होते हैं।
८) कर्म का सिद्धांत क्या है? अथवा कर्मसिद्धांत क्या है संक्षेप मे बताइये? What is karma principle?
कर्म का सिद्धांत संक्षेप में बताना चाहे तो हम यह कह सकते हैं कि मनुष्य के द्वारा जो भी शुभ है या अशुभ कर्म किए जाते हैं उसका फल उसे अवश्य भोगना पड़ता ही है। कर्म का यह सिद्धांत अत्यंत कठोर है आदमी के द्वारा किए गए अच्छे कर्मों से जीवन में प्रगति की दिशा में ले जाते हैं तथा उसके द्वारा किए गए पुरे कर्म उसका पतन निश्चित कर देते हैं।
९) मनुष्य के कर्मों का फल कैसे मिलता है?
प्राप्त परिस्थिति के अनुसार अपने विद्या का उपयोग करके मनुष्य जो भी अच्छे या बुरे कर्म करता है उन्हीं सभी कर्मों का फल आयोग जाति के रूप में उसे जरूर मिलता है।
जाति का अर्थ है यहां पर ऐसा है कि उसे किसी भी योनि में जन्म लेना पड़ता है जैसे कि पशु जाति मनुष्य जाति पक्षी जाति किस जाति या फिर अन्य कोई भी जीव के रूप में उसे फल भोगना पड़ता है।
१०) अच्छे कर्म कौन-कौन से होते हैं?
जो कर्म सदैव मानव के लिए शुभ शुभ कार्य होते हैं अर्थात जिनके कारण अन्य जीवो का दुख ,दर्द शमन होता है अथवा उन्हें सुख की प्राप्ति होती है ।वह सभी कर्म अच्छे कर्म कहे जा सकते हैं।
भगवान की भक्ति भाव से पूजा करना उनको नमन करना और उनकी भक्ति करना यह भी अच्छा कर्म है ।हमें कभी भी इन कार्यों में बाधा उत्पन्न नहीं करनी चाहिए।
११) कर्म कैसे बनते हैं ?उनके प्रकार कौन से?
कर्म छह प्रकार के होते हैं ऐसा कहा जाता है।
- नित्य कर्म [दैनिक कर्म]
- काम्य कर्म [किसी मकसद से किया कार्य]
- नैमित्य कर्म [नियमसे किया कार्य]
- संचित कर्म [प्रारब्ध से सहज हुए कार्य]
- निष्काम कर्म [ बिना स्वार्थ के कार्य]
- निषिद्ध कर्म [ नहीं करने योग्य कार्य]
१२) पाप कितने प्रकार के होते हैं?
- लालसा
- अपव्यय
- वासना
- लालच
- अनासक्ति
- विषाद
- क्रोध
- सुस्ती
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